उन निबंधों में से एक जिससे एक सघन हौंसलें की,एक सामान्यता की,मधुर-सौंदर्य और शाश्वत परिचय की ख़ुशबू आती है।एक ढलती हुई शाम की वो पवित्र उत्सुकता,उजियारा,कभी ना बुझने वाली रोशनी,सब कुछ खो देने या मीलों भटक कर वापस लौटने के बाद वो शांति और आराम का क्षण जो एक मानवीय अनुभव है।डॉ श्याम सुंदर दुबे की लेखनी से रचा वह निबंध जो मुझे बहुत प्रिय है.
तिमिर गेह में किरन आचरण
बहुत दिनों बाद घर लौटा था। दीवारों पर वर्षा ने ऊबड़-खाबड़ चतेवरी अंकित कर दी थी। दरवाजे के सामने वाले चबूतरे पर गौखुरों की रूदन-खूँदन से अटपटी वर्णमाला लिख गई थी। घर का समूचा नाक-नक्शा ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे अतीत के प्रहारों को झेलते-झेलते वह झुर्रियों के इतिहास में बदल गया हो। मैं जो ताला लगाकर गया था, उसकी छाती पर जंग जमकर बैठ गई थी। किवाड़ों पर मकड़ियों के जालों में उलझी-पुलझी धूल हाथ लगते ही उड़कर चेहरे पर आ गई। घर क्या दीवारों, लौह-लंगर और छानी-छप्पर का ही नाम होता है ? तब मैं जिस घर के सामने खड़ा था, वह मेरा घर ही होना चाहिए। किन्तु ऐन वक्त पर कुछ-कुछ मैं भावुक हो उठता हूँ । यहाँ, इन्हीं दीवारों में कहीं मेरा बचपन हिलबिलान हुआ है। मेरी किलकारियाँ और रोदन, मेरा क्रोध और मेरा ममत्व इसी के भीतर किस कोने में अटके हैं? माता-पिता और बहिनों की आत्मीयता दरवाजों के भीतर से हुमकती-सी लगती है। मेरा अतीत ढोता यह घर, जिसका ताला खोलने में ही मुझे आधा घंटा लग गया, मेरे सामने खुला पड़ा था। घर नहीं खुला था, लगा कि जैसे ताले के साथ ही मेरे भीतर कुछ खुलता जा रहा है।
एक कोई चाबी मेरे मन के भीतर घूम रही थी गाँव और घर के कुंदों में फँसती उलझती। वे सगुन-साध, वे तीज-त्योहार, वे बड़े-बूढ़े, वे गाय-बछेरू, वे ढोर डांगर, वे शरद् की संध्याएँ जिनमें गौरज उड़ाती गलियाँ आत्मीय ऊष्मा से भर उठती थीं। घंटियों की वह टनटनाहट और शंख-घड़ियालों की मिली-जुली वह सुरलहरी, जिससे समूचा गाँव एक वानस्पतिक उल्लास और पूजा-भाव से स्पंदित हो उठता है। कउड़े की आग के ताप से दिपदिपाते चेहरों की प्रसन्नता, अंधेरों में भी खनक जाती है। ज्वार-बाजरा के वे खेत जो डांग की सघनता रचते थे- मेरे आसपास अपनी निबिड़ता में रूपायित हो जाते हैं। छोटी-छोटी चीजों को पा लेने की व्याकुल प्रसन्नता मुझे छूने लगती है। खेत में एक पकी कचरिया को ढूँढ लेना ही परमसुख की तलाश बन जाती थी। वह सुख बिसर ही गया है। आल-जाल और जंजाल में फँसा मेरा मन धीरे-धीरे सुख के स्वाद से वंचित हो गया है। बचपन का कचैलापन जिस सचाई में जीता है, उसे हम भले स्वप्नशीलता कहें, लेकिन वह है बहुत खरा यथार्थ ! बचपन के खरे और करारे अनुभव ताजी और पहलौटी अनुभूति के कारण स्मृति में सदैव घर किए रहते हैं। धीरे-धीरे मन का पानी उतर जाता है। मन स्वाद के मामले में भोथरा जाता है- हम जड़ होते जाते हैं। केवल बचपन की वस्तुओं से टकराकर ही हम कभी-कभी उस सुख-बिन्दु की प्रभाव- परिधि में आ जाते हैं।
चीजें ही बदल रही हैं तो बचपन को पाना कठिन होता जाता है। जिन हलों के साथ टिप्पे की टिटकारें सुनी थीं, वे हल चूल्हे की आग बन गए। फटफटाते ट्रैक्टर खेतों की छाती चीर रहे हैं। तालाब जैसे भरे बंधान गायब हैं, बरसात ही कम हो रही है तो कहाँ से भरें खेत ? धरती का पेट चीरकर पानी खींचा जा रहा है। भभकती सिंचाई मशीनें हड़बड़ा रही हैं। झकझकाती बिजली गाँव को चौंधिया रही है- टिमटिमाते दीयों की रोशनी का अता-पता नहीं है। न ढोर न बछेरू और गौचर भूमि ग़ायब है। न कउड़े, न लोग! एक ज़बर्दस्त शून्य गाँव की छाती पर पसरा है। चोरी, डकैती, मुकदमा ने गाँव की चौपालें तोड़ दी हैं। रामधुनों और भजनों के ढोल-मंजीरें मद्धिम पड़ गए हैं। ट्रांजिस्टर और टीवी जो आ गए हैं। किसी को चिंता नहीं कि हिलने-मिलनेवाली आत्मीयता इसी तरह खोती गई तो आदमी के भीतर की भावना-नदी का क्या होगा? सब पानी बाँट रहे हैं। सब अपने-अपने खेत सींचने में लगे हैं। लेकिन वही ढाक के तीन पात! अंत में कुछ बचता नहीं है। इज्जत-आबरू दाँव पर है। राजनीति ने ऐसा हड़कंप मचाया है कि तीन घरों का गाँव भी तीन पार्टियों में बँट गया है। यह बँटवारा कौन करा रहा है ?
मुझे लगा मैं किसी अँधेरी सुरंग में आकर फँस गया हूँ। सचमुच दरवाजा खोला तो खड़बड़ाता-सा भाराक्रांत अँधेरा सामने फैला था। चूहों और छिपकलियों की भागदौड़ में अँधेरा ध्वनित हो रहा था। इस कर्कश अँधेरे में धँसने के लिए ही तो मैं आया हूँ। गाँव में भी ऐसा अँधेरा समाया है। उजाले के प्रचार के बीच का अँधेरा बड़ा खतरनाक होता है। किरण तक नहीं फूट पा रही है। कैसे लाया जाएगा यहाँ उजाला ? कौन काटेगा इस अंधकार को ? मैं अँधेरे में कैद हूँ। स्मृतियों के सहारे प्रकाश को खोजता हूँ। हवा का एक झोंका आया पूरा कमरा सिहर उठा। रोशनदान से एक उजास झाँकी। आले में कुछ पीला-पीला-सा प्रकाश दिखा। पिछली बार जब घर छोड़ा था, तब गेहूँ के कुछ दाने आले में छूट गए थे। इस बरसात में वे अँकुराकर बड़े-बड़े हो गए हैं। हलदिया पीलापन ऊर्ध्वमुखी होकर अंधेरे में दिपदिपा रहा था। मुझे लगा कि प्रकाश जीवन का ही दूसरा नाम है। मिट्टी के दीपक और बिजली के लट्टू जिस प्रकाश को विकीर्ण करते हैं, वह तो प्रकाश का छायाभास है। असल प्रकाश तो हमारे जीवन में छिपा हुआ है सृजन का प्रकाश! आदमी का आचरण, आदमी का शील, आदमी का श्रम, आदमी का विवेक और आदमी की भावना जिसे छू लें, वह प्रकाशित हो जाए। बड़े-बड़े अँधेरों को तराशकर ये प्रकाश-निर्झर बहा दें। जवारों जैसे पीताभ गेहूँ के पौधे क्या यह संदेश नहीं देते कि सृजन की यात्रा कभी रुकती नहीं ? उसे अँधेरे बंद कमरों में भी नहीं रोका जा सकता। घर के भीतर अब मैं आश्वस्त होकर खड़ा हूँ- एकाकी, इस वीराने में सृजन के प्रकाश का सुख लेता हुआ। पिताजी ने घर के इसी कोने में एक बार कहा था- 'जीवन बहुत सरल नहीं है। मेहनत और ईमानदारी ही ऊर्जा बढ़ाते हैं। लाख अँधेरे आएँ, लाख आपत्तियाँ आएँ, तुम यदि अपने प्रति आस्थावान्, निष्ठावान् रहोगे, तो स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को भी प्रकाशित कर सकोगे' उस दिन दीपावली थी। मिट्टी के दीपकों की कतारें जगमगा उठी थीं। उन्होंने कहा था- 'बस इसी तरह जगमगाओ। यदि दूसरे प्रकाशित न हो पा रहे हों, तो उन्हें अपनी ज्योति का स्पर्श दो; वे भी तुम्हारे समान खिल जाएँगे।'
मैंने माचिस की तीली जलाई। रोग़न का एक कसैला धुआँ समूचे घर में भर गया। तीली फक्क फक्क करके बुझ गई। 'अब जलाओ दीया... करो प्रकाश' जैसे घर का अँधेरा मेरे ऊपर हँस रहा था। मुझे लगा हमारे भीतर की सृजन- चेतना समाप्त होती जा रही है। हिंसा, प्रतिहिंसा, स्वार्थ, छल, फरेब, दगाबाज़ी न जाने क्या-क्या हमारे भीतर डेरा डालकर घुप्प अँधेरे में मकड़जाल बुन रहे हैं। मन के इस अँधेरे में भटकते हम एक-दूसरे को लहूलुहान करने पर तुले हैं। इस अँधेरे को दूर करके ही हम मानवता के प्रकाश को फैला पाएँगे; तभी दीये भी हमारे लिए शाश्वत प्रकाश-केन्द्र बन सकेंगे।
मैंने झाडू उठाई और घर के ओनों कोनों में लगे जाले साफ करने लगा। अब मुझे अँधेरे से डर नहीं लग रहा था। क्या हुआ जो माचिस की तीली नहीं जली ? मेरे हाथ की झाडू भी प्रकाश बिखेरने लगी थी.... और सैकड़ों तीलियाँ जैसे मेरे आसपास जल उठी थीं।
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