Monday, 2 December 2024

Poems SELF

Poems that of Raatein aur Chahalkadmiyan and Others.



पलाश के लाल फूल

हरे घने वन में
बरसते सावन में
झूमते हैं
जलकणों को चूमते हैं
फिर इस अल्पकालिक परिणय को तोड़ देते हैं
बूँद को ज़मीन पर छोड़ देते हैं
ऐसा नहीं है कि सोख नहीं सकते
एक मामूली पानी का क़तरा
निचोड़ नहीं सकते
पर अर्थहीनता की सीमा जानते हैं
और अपना सच पहचानते हैं
कि बूँद ढोना
मौत ढोना है
यदि हर बूँद के कण से
पुष्प अपना तन जुड़ाता है
या निरंतर बोझ बढ़ने पर
कहीं निज सुख जुटाता है
तो अगले ही क्षणों में फूल वह
धरा पर मात खाता है


एक शब्दों की तरंग

वाक्य बन रच-जँच कर
पन्नों पर उड़ेल दी जाती है
काव्य बन जाती है
काव्य जिसमें सच समेटने की हैसियत है
या गुमराह करने की कला
जिसमें एक वेग है
इस धरातल से उठा अलौकिक तक ले जाने का
जिसमें फूल कलियाँ और बरसात है
लंबा-चौड़ा विस्तृत आकाश है
जहाँ मैं नहीं हूँ
मेरा दुख नहीं है
उस काव्य में जहाँ दूर-दूर तक सिर्फ़ एक रमणीय सौहार्द है
झूमती, लहलहाती संसृति है
ईश्वर-परिनिर्वाण है

बस मैं नहीं हूँ
मेरा दुख नहीं है


दिल उदासी में गाया किया

और भीगी शामों में
मुस्कराया किया
कभी जो बैठा नदी किनारे
लहरों ने छुआ तो इतराया किया

चाँदनी चमकती थी पानी पर
और जहाँ चाँद की नौका रात की काली नदी पर
उछलती थी
मेरा दिल डूब जाता था
सैकड़ों सवाल थे ज़ेहन में
और जवाब शायद पानी में नहीं था
काफ़ी दिनों की आज़माइश थी
मालूम चला जवाब पीने में नहीं था
सो आज मैं मयख़ाने नहीं गया
इधर चला आया
और अब जो यहाँ बैठा हूँ
नदी का शीतल जल
पाँवों की सिहरन
दूर पहाड़ी के मंदिर की टिमटिमाती रोशनी के बीच
तो भूल-सा रहा हूँ कि सवाल क्या थे
और हद तो ये है कि
आने के इरादे भी अब याद नहीं

चाहे मेरे असंख्य सवाल ही क्यों ना हों
उनकी मलिनता मैं इस शीतल जल में नहीं मिलने दूँगा
शायद लहरों का स्पर्श अंदर से ही कुछ धो-सा देता है
मुझे इस निस्पृह संध्या में मूक रोदन नहीं करना है
बल्कि इसका एकांत बाँटना है
इसे सुनना है
इसी किनारे बैठकर
और इसकी सिहरन
इसकी शाश्वत नवीनता भीतर तक उतार लेनी है
इसकी ज्वार की लय में स्पंदन बाँधने हैं

एक और स्पंदन है मंदिर की घंटी
ईश्वर का सान्निध्य
या प्रारब्ध
ईश्वर जिसने मुझे और इस नदी को रचा
एक अखंडनीय अटूट रचना
और आदमी और उसकी सभ्यता ने हमें दूर किया
और आज सदियों के अंतराल के उपरांत
इस पुनर्मिलन का साक्षी है
नदी का ठंडा पानी उसकी नीरव क्रीड़ा
मंदिर की घंटी, देह की हल्की सिहरन
बचपन की स्मृति-से जान पड़ते हैं
अतीत के अध्याय के वो अंश
जहाँ आज से पहले कभी जाना एक कमज़ोरी
एक घबराहट-सी जान पड़ती थी
जहाँ से इस विकासशील मनुष्य ने अनंतकाल का संन्यास ले लिया है
जहाँ उसे नदी पर्वत झरने और अपनी अनभिज्ञता
मामूली जान पड़ते हैं, अनुत्पादक!
किंतु आज नहीं
आज मैं मयख़ाने नहीं जाऊँगा
हाँ दुनिया का कारोबार है ज़िंदगी की ज़िंदगीभर की कशमकश है
और निश्चय ही उसमें घसीटा जाऊँगा
पर ये वादा रहा तुमसे
ओ! मेरी एकांत-संगिनी सलिला, मेरे ईश्वर
और तुम्हारी अनगिनत रचनाएँ
कि अब मैं मयख़ाने नहीं जाऊँगा
मैं यहीं आऊँगा और बैठा करूँगा
और तुम्हारे ही स्वर में गाऊँगा
लहरों की ताल पर नाचूँगा
मदहोश अगर हुआ भी तो नशा तुम्हारा होगा
मैं सदियों का एकांत आज तोड़ता हूँ
एक नया सिरा परिणय का जोड़ता हूँ
और इसे आख़िरी साँस तक ये प्रतिज्ञा है कि निभाऊँगा
साक्षी है ये असीमित आकाश
मैं अब मयख़ाने नहीं जाऊँगा


रात चढ़ती है उतरती है

कितनी करवटें बदलती है
बोर भी नहीं होती
संध्या, रात्रि एवं भोर
जैसे खोजती हो अपना ही कोई छोर
सभी अक्सर सो जाते हैं
और रात अकेली हो जाती है
एकांत और विच्छेद इसकी नियति है
किंतु जहाँ मेरा एकांत नश्वर है
इसका एकाकीपन अमर है
मेरा वैसे तो इन रातों से कुछ ख़ास नाता नहीं
और सच कहूँ तो रोशनी में मैं इसे पहचानता नहीं
पर ये भी अपनी जगह सही है कि
रात मेरी कुछ हद तक एकांत-संगिनी है

इसका मूक स्थायित्व स्व-परिक्रमा में है
इसका एकाकीपन दुनिया की नींव है
रात मेरी ही जाति का कोई अनोखा जीव है
पर रात मेरी तरह मरेगी नहीं
वो जलती रहेगी तपती रहेगी अपनी क्रूर परिक्रमा में
किंतु यह भी है
रात का मुझ पर मोल भी है
और मेरे पास कुछ नहीं देने को
रात के एकांत में अगर अपना एकांत जोड़ दूँ
और अपने नश्वर जीवन के अंत तक
इसका एक साथी बन सकूँ
इस उम्मीद में
कि कहीं और
कोई फिर इसकी शाश्वत परिक्रमा का साक्षी हो जाएगा


बूँद का प्रयास

सागर समझने की
क्या एक मूर्खता है
जहाँ उसका अस्तित्व ही सागर से है
क्षणभंगुर नश्वरता
एक पानी के मामूली क़तरे की
तो क्या अपनी निरर्थकता जानती है?
इस प्रयास की हीनता
और क्या जानती है कि
बेकार ही सूक्ष्म की स्थूल से क्रांति है

मैं नहीं जानता
मेरी अल्प मति है
और दुनिया की अपनी गति है
अपने रहस्य हैं
और जब उलझना-सुलझना अपनी नियति है
तो कल बूँद समंदर का मूल तत्व जान भी ले
तो क्या है!


उमर संयम से बीतती है

तो रात उखड़ती है
अब तो मेरी हर साँस उखड़ती है

पैमाने पढ़े कई क़तरे नापने के
कि हयात है दरिया-सी मेरे बाज़ुओं से फिसलती है

कितनी दूर बहुत दूर
कितना ज़्यादा बहुत ज़्यादा
यूँ तो बढ़ चला हूँ
पर बेख़बर हूँ, राहें कहाँ बदलनी हैं

अब इस छोर पर हूँ
कच्ची डोर पर हूँ
पाँव सँभाले भी सँभलते नहीं
और ज़िंदगी हर पल बिखरती है


जय के आह्वान

प्रचंडता और झंकार में
ख़ूनी प्रतिद्वंद्वी ललकार में
म्यानी-चारदीवारी में क़ैद
चमचमाती तलवार में
सिर्फ़ जीत नहीं है
एकांत है
विजयी की अजेयता का डर
उसकी ख्याति अमर
उसका स्वर्ण का मुख
उसका स्वर्ण का घर

आँखें चौंधिया देता है
जय का आलोक ही जयी को बुझा देता है
चिलचिलाती धूप में धूप तो दिखती है
मगर सूरज नहीं दिखता
आदमी का वैभव तो दिखता है
मगर आदमी नहीं दिखता

हम देख नहीं पाते
उसका संघर्ष
उसकी दुर्भावनाएँ
उसका एकाकीपन
उसका निरंतर मशीनीकरण

हर जीत की क़ीमत
उसकी अपनी हार है
विजय पर पराजय का यह भीषण प्रहार है!


एक इबादत का साया है

जो मुझ पर छाया है
एक आँचल-सा चेहरे पे लहराया है
सूखी हुई बंजर ज़मीं थी जहाँ
ऐसी उपज है कि लहलहाया है

हर उदासी में एक मुस्कराहट-सी है मिली
कल, जो कल तक था बेरहम मुझ पर
आज देखता हूँ तो पाता हूँ कि माया है

तर्क से तो यूँ ख़ूब लड़ी मैंने
आस्था की जंग
फिर माना कि ये किसी और मैदान में आया है
रूह तो मर गई बरसों पहले
ज़मीर ना इंच भर लड़खड़ाया है

एक माथे पर हल्की बिंदी है
एक उसकी सादगी ही तो है
जिस पर दिल आया है



ये अज़ाब का वो दरख़्त है

जहाँ क़ैद मेरा वक़्त है
ये फ़लसफ़ा है एक उम्र का
एक गीत में मैं नहीं कह सकूँ
मगर मौन भी ना अब रह सकूँ

ये दरख़्त है मरा हुआ
किसी जगह धरा में ही
गड़ा हुआ
धरा हुआ
यहाँ आके मिल गया सुकूँ
यहाँ आके थम गया हूँ मैं

मेरा गीत सुन जो बता सको
तो बताओ कि मेरी मासूमियत
मेरा मामूलीपन कहाँ ज़ब्त है
ये अज़ाब का वो दरख़्त है

अब कशमकश रही नहीं
सब रुक गया
सब थम गया
यहाँ ज़िंदगी से बनी नहीं
और मौत से ठनी नहीं
मैं जीता गया इक उम्र तक
फिर यूँ हुआ कुछ यूँ हुआ
कि ज़िंदगी में मर गया

कभी थे लिखे अपने नसीब
अब पीटता-घसीटता
काटता-कुरेदता
नीछता-उकेरता
जिंद की बिसात पर अपनी क़लम बिखेरता
अब लिखता मेरा वक़्त है
ये अज़ाब का वो दरख़्त है

एक द्वंद्व ज़ीस्त-जरा का है
शून्य से ही चल रहा
सभ्य तथ्य धूल हो गए
ना अटल कोई अमल रहा

दरख़्त जानता है ये
सावन-पतझड़-ग्रीष्म-शरद का भेद मानता है ये
कि कभी मौत में है ज़िंदगी
कभी ज़िंदगी में मौत है
ये अज़ाब का वो दरख़्त है

दरख़्त मेरे दरमियान आए कभी लाए कभी
कभी छाँव कभी नींद कभी चैन
तो कभी भीगने से बचा लिया
कभी तो मन-अगन जुड़ा लिया
यहीं बचपन की थी लगन
यहाँ जवानी की थी जलन
जिसे सोखकर बुझा गया
मेरी ज़िंदगी है दरख़्त से
ये दरख़्त की ही जान है
ये अज़ाब का वो दरख़्त है

दरख़्त कई दर्शनों का सूक्ष्म इक निचोड़ है
तमाम उम्र अपनी ज़िंदगी में अड़े रहो
किसी जगह पड़े रहो
कभी जो उठो नभ की चोटियों पे
सफलता की कोटियों पे
तो ज़मीन में गड़े रहो
कभी मौत आए
मौत की भी ठंड में गड़े रहो
उसी एक थल अड़े रहो
दरख़्त बँट चुका है अब
तने डालियों पत्तों में
आदमी की सभ्यता से इल्म भी दरख़्त का
दूर है परित्यक्त है
हाँ ये अज़ाब का वो दरख़्त है


रातों की उदास चादरें

कँपकँपाती देह
छटपटाते पैर
आँखें जल रहीं
ज़िंदगी पिघल रही

ओढ़कर, कुछ सोचकर, कुछ मानकर, कुछ थामकर
आज का अपराधबोध
आज ही में गाड़कर
गर सो सकूँ क्या बात हो!
क्या बात हो गर सो सकूँ!

पर सच अपनी कल्पना के ठीक विपरीत है
रात की परछाइयों में झिलमिलाती-खिलखिलाती
लबलबाती मौत है


बहती है रेत-सी पानी की धार

और तन पत्थर का सूखता है
बीच से काट देती है
परतों में बाँट देती है
पहाड़ पत्थर हो जाता है
और फिर धूल

पानी की ये हरकत
करती नहीं छाती में शूल
पहाड़ पानी बहने देता है
सदियों तक ख़ुद पर रहने देता है
कटने देता है
क्योंकि वही तो लक्ष्य है
कटना बँटना और धूल होना
और फिर पहाड़ होना


क्यों न पल भर मान लूँ

कि हार हूँ मैं
जीर्ण-शीर्ण, ज़ार-ज़ार हूँ मैं
और धूल भी हूँ
बारीक कटी हुई
परतों में बँटी हुई

तो क्या है
क्यों ना पल भर मान लूँ कि प्यार हूँ मैं
एक ठंडी-सी लहर हूँ
जो पाँव के ताप हर लेती है
प्यार की लहर
जो संसृति को अपना-सा कर देती है

तो प्रारब्ध क्या है?
मृत्यु?
या मृत्यु की खोज?
या कि पराजित ऐसा ही कोई बोध।

नहीं! प्रारब्ध लड़ना है
पहले इंसान का निज अरि से
फिर किसी बाहरी से
समाज से, भगवान से
इस द्वंद्व में ही निहित विकास की गाथा है
प्रारब्ध का मृत्यु से ऐसा ही कुछ नाता है
पर लड़कर मरना है, हँसकर मरना है
इस निरंतर टकराव से या क्षणिक हार के भाव से
शांति संवाद नहीं करना है
सिर्फ़ लड़ना है


अच्छा! बारिश वहाँ भी होती होगी

भीगती तुम भी होगी
शायद कभी मेरा ख़याल आता होगा
और सिहरती तुम भी होगी

मचलती, उछलती, नदी-सी निरंतर
बहती रहती होगी।
मैं नहीं
मैं तो समंदर-सा जम गया हूँ
मेरे लिए धूप, बरसात और बहारें
अब सिर्फ़ बदलती बातें हैं
अब इनमें जीवन का रस नहीं है

मेरी इस हालत पर
अब मेरा कोई बस नहीं है
मन विवेक आत्मा और परमात्मा
सब जा चुके हैं
मेरा वजूद छोड़कर
पर अब यह मुझे खलता नहीं
यही एक सच है जो अपना रंग बदलता नहीं

मगर अब बदल चुकी हैं सारी बातें
वक़्त खेल चुका है अपनी सारी चालें
और घसीट लाया है वहाँ
जहाँ बरसात में भी हम भीग नहीं पाते
दोनों ज़िंदा हैं
मगर साथ जी नहीं पाते

स्मृति जाती नहीं है

आज जो भी है
पाषाण-सा
मुझमें गड़ रहा है
अतीत उखाड़कर फेंकना है
रास्ते में अड़ रहा है
चाहता हूँ ध्वस्त कर दूँ
अब इसी आवेग में पर
मृत्यु है कि भूलकर भी अब इधर आती नहीं है
स्मृति जाती नहीं है

है समय की रेख पर
गतिमान मेरे क़दम
यूँ कि कोमल डर पर
डगमगाता मेरा बदन
क्या है, कैसी योजना है
व्यर्थ है इसका विवेचन
ठोस है सच्चाई फिर क्यों नज़र आती नहीं है
स्मृति जाती नहीं है


फिसलन 

कुछ खुरदुरे-से थे कभी
रास्ते तमाम ज़िंदगी के
अब तो यूँ सपाट हो चले हैं
कि फिसल रहा हूँ मैं

टटोलता-सा हूँ गहराई
अंदर का सच और तन्हाई
सोचता हूँ कि किसी दिन जान पाऊँ नदी का तत्व
नामालूम हूँ कि समंदर से उलझ रहा हूँ मैं

कभी मुझ में कुछ मेरा-सा था
आलम अलग-सा था
जीना सहज-सा था
आते-आते यूँ तो आ गया यहाँ तक
रास्ते घर के भूल-सा रहा हूँ मैं


गीत उदासी में लिखकर मिटा दिए मैंने


गीत उदासी में लिखकर मिटा दिए मैंने
आफ़ताब धर हथेली पर फूँक बुझा दिए मैंने
वो एक लम्हा जहाँ अपना होना लाज़िम था
वो गुज़र गया
मगर जिया नहीं मैंने
दयार! बख़्श मुझे
एक घड़ी की आराम-ए-क़फ़स
कि इन शामों में बस कराहा किया मैंने
एक उमर तक तो हौसले से जीता गया
ठीक उसके बाद ख़ुद मुझी को मार दिया मैंने
मेरी नज़र और मेरे वजूद के
दरमियान की वो अनगिनत दीवारें
इक उम्र तक चीरा किया फिर नकार दिया मैंने
गीत उदासी में लिखकर मिटा दिए मैंने


जलते हुए दरख़्त

इस रहगुज़र पर देखे हैं मैंने टूटे हुए दरख़्त
उजड़े हुए, मुर्दा पड़े, बिखरे हुए दरख़्त
भीतर वो ख़ालीपन
वो सूनापन
और खरोंचें रूह की
जकड़े नसों को डालियों में सिमटे हुए दरख़्त
छाती फटी धरती की, तही कंकालों की चादरें
आसमान ताकते हैं, जलते हुए दरख़्त


ये रात देखी है मैंने
यहीं टूटकर फैला पड़ा था
समाँ का चाँद भी मैला पड़ा था
जहाँ देखूँ, जहाँ बेजान-घायल
कराहे, साँस बाँधे, मौन था, मुर्दा पड़ा था
मेरी साँसों की धड़कन दौड़ती थी भागती थी
किसी एकांत मुझसे दूर जाना चाहती थी
मगर फिर चैन आया नींद आई
यूँ बरसों बाद जैसे नींद जैसी नींद आई
ये वारदात मुद्दतों बार देखी है मैंने
ऐसी रात देखी है मैंने


नौका हमारे सामने

रात तकते रह गए हम
उस नदी के सामने
जिस नदी में है खड़ी
नौका हमारे सामने
वो दूर है
हम दूर हैं
हम कैसे दंभ में चूर हैं
हम मूढ़ता में तर-ब-तर
हम कल्पना में पूर हैं
ये चाँदनी-सी रात है
तारे क़तारों में खड़े
उजले चराग़ों से जड़े
किस बेबसी की रात है
कुछ क़ायदे हैं सामने
नौका हमारे सामने

बहना नहीं भाता हमें
हम ठोस हैं पाषाण मन
जीना नहीं आता हमें
हम गड़ रहे इस छोर पर
हम मर रहे इस छोर पर
तरना नहीं आता हमें
तरना नहीं आता हमें
नौका हमारे सामने

भयभीत मन है शिथिल है
जम-सा गया है मृत्यु-सा
बहकर कहाँ को जाएगा
क्या हाथ लेके आएगा!
इस तर्क में उलझे खड़े
हम मौत-से मुर्दा पड़े
ना जान पाए मान पाए
ज़िंदगी के मायने
नौका हमारे सामने

इक उम्र थी जब नाव
अपने आप आती थी इधर
मेरा युवा उल्लास उस को
खींच लाता इस क़दर
वो ज़िद करे, वो लड़ पड़े
वो बाँध मुझको चल पड़े
बचना मुझे आया नहीं
कुछ प्रीत ऐसा नाव का था
रुकना मुझे आया नहीं

मैं देखता हूँ
रात है
एक नाव है
कुछ नीर है
इक स्वन के आलोक के अमरत्व की तस्वीर है
हैं हाथ जड़-से पाँव जड़-से हृदय किंतु अधीर है
मन कूदता है उछलता है
मीत मिलना चाहता है!
कौन अब इसकी सुने
कोई व्यथा अब क्यों चुने
सब हौसले हैं बुझ गए
अब कौन यायावर बने
नौका हमारे सामने


मैं क्रीड़ा करता जाता हूँ

अकुला जाता है प्राण
और साँस उखड़ती जाती है
उजले चटकीले धूप में भी
परछाईं गिरती जाती है
हो कोई ओट जिसमें छुपकर
मैं रात बिताना चाहूँ तो
है देख अकेले आ दबे पाँव
तन्हाई खाए जाती है
मै घबराकर उठ जाता हूँ
और सजदे में झुक जाता हूँ
पर रह रह कर भूखे बच्चों की आह सुनाई देती है
मज़दूरों का ख़ून अभी तक सूखा नहीं दिखाई देता
एक लाश और खेतों के बीच
पेड़ों पर लटकी जाती है
टुकड़ों को मोहताज लोग
धरती पर गिरते जाते हैं
बेज़ारी, बीमारी के मारे
पत्तों-से बिछते जाते हैं
मै स्वयंप्रभु, मैं केंद्रीय कृत
लट्टू-सा फिरता रहता हूँ
निज-सुख विलसित
निज-व्यथा व्यथित
अपनी दुनिया में ख़ुद नायक, जीना नाटक
बस क्रीड़ा करता जाता हूँ
मैं क्रीड़ा करता जाता हूँ


ओढ़ लेता हूँ उसे

ओढ़ लेता हूँ उसे
जब ठंड लगती है मुझे
पर क्या कहूँ
अब मुझे बहुत ज़्यादा ठंड लगती है
मेरी ठिठुरन अब वो समेट नहीं पाती
और अलाव के पैसे नहीं हमारे पास
प्यार से दिल तो भर जाता है
पर पेट का क्या करें
मै उसे खा तो नहीं सकता
ये गुलाबी होंठ चबा तो नहीं सकता
नीरस शाम तो ढल जाती है
फिर बल्ब जलाना पड़ता है
आजकल हर चौथे दिन कोई क़र्ज़ चुकाना पड़ता है
धराशाई हो जाता हूँ
इश्क़ में शहीद
पर ये भी है कि
इश्क़ की मौत एक अच्छी मौत है
वैसे तो मैं बॉर्डर पर भी मर सकता था
और किसी ओछे राजनेता की जेबें भर सकता था
मैंने चुना मगर
कि मुझे उसकी बाँहों में मरना है
जाड़ा-धूप-बरसात सब उसी के साथ सहना है
हाँ हम एक-दूसरे को खा नहीं सकते
मगर पी ज़रूर सकते हैं
कुछ और पल मदहोशी के
जी ज़रूर सकते हैं


अंतर्दहन 

आज भीतर कुछ खरोंचा कुछ तलाशा
कुछ मशक़्क़त की, हाथ मारा
तह तक गया, छान मारा
और पाया कुछ नफ़रत की धूल
कुछ मोहब्बत की सूखी पत्तियाँ
कुछ केरोसिन उन आँसुओं का
जो मैं कभी पी गया था
जो नहीं जीना था वही जी गया था
और उन गलियों से गुज़रा
जहाँ कभी मस्तमौला फिरा करता था
वही हवाएँ हैं
वही आरियाँ हैं
वही पुरानी मेड़ है
किंतु देह आज अधेड़ है
पर रुका नहीं
चला आया उन खलिहानों में
जहाँ कभी ख़ून-पसीने की क़दर थी
रोएँ खड़े होते थे
साँसें चलती थीं
ख़ुदा महसूस होता था
वहीं किसी खलिहान में
सारी मोहब्बत, सारी नफ़रत बार दी
ज़िंदगीभर की कसर एक चिंगारी पर वार दी
और फिर धुआँ उठने लगा
सफ़ेद और काला
और छाने लगा घने बादलों-सा
और इस अकबकाहट ने कहीं मुझे झिंझोड़कर
फिर साँस लेने पर मजबूर कर दिया
ज़िंदा कर दिया


क्या बताऊँ साक़ी कि कितना प्यासा हूँ
क्या पिऊँ कि मेरी प्यास बुझे
ये आख़िरी शब भी अब शराब है
ला पिला दे मुझे
कभी रुककर, थमकर तो कभी ठहरकर पी है
अबकी रात न चाहिए कोई एहतियात मुझे
ये फ़रेब है जहाँ सुन!
कल को बेच देगा तुझे
जो कल कहूँ ये बात मैं
ये जग ख़रीद लेगा मुझे


ये शरम इन लबों से उतार दो जानम
अबकी रात ये चेहरे भी उतार दो जानम
हयात है दयार-ए-ग़म में क़ैद है जान
जान ही तो है जान हार दो जानम
फैलाओ बाँहें ऐसी कि मेरी सिहरन ओढ़ लें
मुझे बेक़ैद कर मेरी हस्ती निचोड़ लें
मेरा अधमरा जीव तड़पता है
इस जहाँ के सूखे समंदर में
अपनी आँखों का नीर दो
आज की रात मुझे मार दो जानम


दिल खोल ज़रा बोल
तेरे शब्द अनमोल
तेरी चाल तेरे डोल
नहीं नाप नहीं तौल
तेरी उठे नज़र उठे लहर
ज्वार उठा ज्वार उठा
मेरी जली बुझी साँसों में
देख झंझावात उठा
मैं इधर चलूँ उधर चलूँ
जहाँ चले वहाँ चलूँ
मेरा मूल नहीं शूल नहीं
मेरी मिट्टी भी तू ही है
तू जहाँ कहे धूल वहीं

तेरे रूखे-से होंठ छूऊँ
होठों से होंठ छूऊँ
तेरी आँखें हैं! दरिया हैं!
तर लूँ या मर लूँ या
साँसों की लहरों पे चढ़कर के
दरिया का नीर छूऊँ

पर दरिया भी तू ही है
पर्वत भी तू ही है
सुबह तेरी साँझ तेरी
रात तेरी दासी है
पूरे आठों याम तेरी
ये ज़ीस्त तेरी जरा तेरी
धरा तेरी धरा तेरी

और मुझमें तो मैं ही गुम
भीतर से ख़ाली हूँ
तर्कों की बगिया है
बगिया का माली हूँ
आँखों से अंधा हूँ
कानों से बहरा हूँ
अपना ना कहता हूँ
अपना ना सुनता हूँ
जिसमें है व्यथा भरी
उसको ही चुनता हूँ

ना चुनना था चुना वही
ना लड़ना था लड़ा वही
बरसों की क़ैद सही
उड़ना था उड़ा नहीं
नहीं दौड़ी ये दौड़ कभी
पाँवों को ठौर नहीं
मैं सदियों का जागा हूँ
मेरी मंज़िल भी ऐसी कि
छोर नहीं छोर नहीं

अब तुझमें ही मीत चुनूँ
जीवन का गीत चुनूँ
मैंने अब तक है हार चुनी
पीड़ा अपार चुनी
तुझमें ही जीत चुनूँ
भर लूँ मैं अंतर तक
तेरा ही हो जाऊँ
तू कहे वही रीत चुनूँ
तेरी ही प्रीत चुनूँ
प्रीत चुनूँ प्रीत चुनूँ


आज मैं छत पर आया तो देखा कि
बारिश हो रही थी
काफ़ी दिनों बाद बरसात में भीगा
और सोचा भी नहीं
वैसे तो हर मामूली-सी चीज़ पर सोचा मैंने
और सहज चीज़ों को भी वैचारिक बना दिया
पर आज भीग रहा हूँ
इसलिए नहीं कि तन का ताप है
या मन का पाप है
पर शायद इसलिए कि
इन शीतल बूँदों के स्पर्श में छुपा
मेरे भीतर का आलाप है
या भय है?
फिर कभी ना भीग पाने का
कि फिर ये ध्यान भी ना रहे की
बरसात यूँ ही नहीं होती
मेरे लिए- तुम्हारे लिए होती है
ये ठंडी हवा यूँ ही नहीं बहती
ये तुम्हें छूती है
तुम्हारे बालों से खेलती है
और कभी-कभी इधर को भी रुख़ करती है
मेरी छत पर
ये बारिश, ये हवाएँ, नियति नहीं
न कोई दैवी योजना है
अपितु मेरा विचार है कि ऐसा ही होता है
यह नियति नहीं प्रयास है
शाश्वत आकाश है
जो ये जानता है
तुम जानती हो
कि बरसात हमारे लिए होती है
हमारे सीनों की अदम्य आग
हमारे दिलों की अतृप्त प्यास
बुझाने के लिए होती है
जो स्थिरता मैंने तुममें पाई है
जो ठहराव
ठीक वही इन झंझावातों में पाता हूँ
इन ध्वस्त करने वाले थपेड़ों में
मुझे स्थायित्व मिलता है
मन जुड़ाता है
हाँ तो इसीलिए मैं यहाँ खड़ा भीगता रहूँगा
इसलिए नहीं कि कोई द्वंद्व जीतना है
मुझे कुछ भी नहीं जीतना है
तुम भी नहीं
बल्कि इसलिए कि भीग सकता हूँ
और शायद तुम ये नहीं जानतीं
कि भीगना क्या होता है
अंतर की रिक्तता को सींचना क्या होता है
नहीं तो ये एकांत नहीं होता
तुम होतीं
मैं होता
और एक परिणय
एक स्नेहबंध
एक सान्निध्य होता
जैसे नदी के दो किनारों का होता है
अमिलनीय मिलन
फिर शायद मैं ये जान पाता
कि मेरा ताप घट चुका है
या अभी और भीगना है


सुनो ओ दिन के पुजारी!
व्यथा से मन ख़ूब भारी
आँख की लौ बुझ चुकी है
रात देखो ढल चुकी है
बोरिया-बिस्तर समेटो
प्राण सब उखड़ा पड़ा है
ढेर-सा दुखड़ा पड़ा है
प्राण तुम अपने समेटो
जो पड़ा है सब समेटो
वेदना का घर बड़ा है
क्यों पुजारी क्यों अड़ा है
अब दिवस का संग तजकर
सब निरंतर तंज़ तजकर
व्यथा की गरमाइयों में
अश्रु की नरमाइयों में
रो भी जाओ रो भी जाओ
रात कहती है मुझे अब
सो भी जाओ सो भी जाओ

नींद सबकी नियति है
पर नहीं मेरी गति है
मैं निरंतर जागता हूँ
मैं निरंतर भागता हूँ
अरे! जाग के भी क्या करोगे
रात मुझसे बहस करती
व्यथा मेरी सहन करती
कहती– जाग के भी क्या ही पाया
खो दिया अपना-पराया
रोज़ मीलों भागते हो
कभी रुककर झाँकते हो
हीन हो अंतर हृदय में
लीन हो अपनी ही लय में
मैं निरंतर जागती हूँ
क्योंकि मैं ख़ुद में बँधी हूँ
छोर मेरा गढ़ चुका है
भाग्य मेरा मढ़ चुका है
फिर भी तुमसे माँगती हूँ
सो भी जाओ सो भी जाओ

यह निवेदन व्यर्थ लगता
अब मुझे सब व्यर्थ लगता
रात्रि एक परिकल्पना है
आदमी की कल्पना है
रात-दिन की हीनता है
नहीं कोई भिन्नता है
दिवस में भी रात ही है
आँख मूँदूँ रात ही है
मुड़े सूरज जब उधर को
रात आती है इधर को
नहीं कुछ व्यक्तित्व इसका
नहीं ख़ुद का तत्व इसका
मुझे कहती सो भी जाओ

अगर मुझको जान भी लो
तत्व मेरा मान भी लो
छू सको मुझको अगर तुम
परख लो मुझको अगर तुम
जान के भी क्या ही हासिल
रात अपना पक्ष रखती
चूमने को वक्ष रखती
चूम के भी क्या करोगे
आदमी का तन तुम्हारा
आदमी का मन तुम्हारा
झूम के भी क्या करोगे
सत्य मिथ्या मुक्ति माया
भावना से उठ चुकी हूँ
आदमी की कल्पना से
उठ चुकी हूँ उठ चुकी हूँ

बाँधकर मुझको अगर तुम
नापकर मुझको अगर तुम
रख सकोगे फिर कहाँ पर
मै यहाँ बिखरी पड़ी हूँ
सामने बिखरी पड़ी हूँ
नाप लो अगर नापना है
नापकर मुझको बताना
मुझे भी यह जानना है
मेरी अलौकिक कामना है
कौन मन अब जागता है
संग मेरा बाँटता है
तुम भी थककर-हारकर
तन्हाइयों से भागकर
सिर गाड़कर इस क्रूरता से
इस मूर्खता से मूर्खता से
अलग हटकर हो पड़ोगे
सो पड़ोगे


मुझे मेरी ज़िंदगी से बस इतनी शिकायत है
कि जब आए बता जाए
सीने में समा जाए
मुझे जी ले मैं भी जी लूँ
मेरी हस्ती मिटा जाए
मेरी जो मान्यता है, सभ्यता है
दैत्य है जो देवता है
जो सूखा और जर्जर है
उसे आए जला जाए
मेरी ना और कोई दिल्लगी
न कोई और चाहत है
मुझे मेरी ज़िंदगी से
बस इतनी शिकायत है

कभी सिहरन, कभी ठिठुरन, कभी तह तक उतर जाए
जो बरसे ज़िंदगी तो मौत की भी लौ सँवर जाए
कभी तपती दुपहरी देह को अंगार कर जाए
या फ़ीकी शाम आए मौत का बाज़ार कर जाए
ये तेरी नौबतें, ये आदतें, ये उलझे ढेर सारे पैंतरे
ना पा पाऊँ ना खो पाऊँ, ना छाती से लगा पाऊँ
तेरी जो वक़्त की दी दौलतें हैं ख़ुद पर भी लुटा पाऊँ
बता दे पास मेरे और कितनी और मोहलत है
मुझे ऐ ज़िंदगी तुझसे इतनी-सी शिकायत है

मेरा होना या ना होना अभी भी देखना बाक़ी
तो फिर खोना या ना खोना कोई झूठी इबारत है
जो सब है जाल सालों-साल ज़िंदगी फूलती हर डाल!
तो फिर पाना या ना पाना भला कैसी क़वायद है
कई हैं और ज़ेहन में सवालों के जिरह कितने
मेरी अपनी ये उलझन है मेरी ख़ुद की ये आदत है
भला फिर क्यों कहूँ ऐ ज़िंदगी मुझे तुझसे शिकायत है


देह जले या प्राण जले


आज लगे अंतर तक फिर देह जले या प्राण जले
जो मौत मिली तो मौत मिले
जो जान मिली तो जान जले
एक तिनका हो चिंगारी का या दावानल का क्रूर, प्रिये!
मैं करता हूँ प्रस्तुत सम्मुख
अब देह जले या जान जले

जलना तो है एक दिन सबको
सब टाँग हमें ले जाएँगे
मिट्टी के पुतले काय हमारे
बार दिए ही जाएँगे
रस्ता चाहे हो कोई भी रस्ते की मंज़िल राख ही है
जब आँख खुली दावानल है
इस आग में भी आराम ही है

जलना तपना साधन तन का
मन अनलहीन उपयुक्त नहीं
जो शीत हुआ नदियों-सा बह
क्या हो भी पाया मुक्त कभी!
जो बार गया जो मार गया जो अग्निकुंड में हार गया
उस हार में भी ईश्वर बसता
उस हार में भी आवाहन है

यही एक प्रवृत्ति है अग्नि की
पूरी निष्ठा से जलती है
ना हो अवलंबन शोक नहीं
जब जलती है तो जलती है
जो आग छुए तेरे तन को
ये परिनिर्वाण की बेला है
जलना कवि की सुखराग्नि है
जलना जीवन का मेला है

ये देश ग़रीबों में बसता
ये देश अभागा हिस्सा है
बेरहमी है बेचारी है
हर क़िस्सा मार्मिक क़िस्सा है
ये देश बिखरता रहता है
ये देश सिकुड़ता रहता है
ये देश जड़ाता रहता है
सबकी ठिठुरन, सब अंधकार,
सब भ्रमरजाल अब कट जाए
सब आग मिलाकर आग जला लें
पूरे भारत में बँट जाए

जब जले नहीं तो जिए नहीं
अपनी काया में क़ैद रहे
लोगों ने थोपीं सौ बातें
हम सौ बातों में क़ैद रहे
लकड़ी लाए अपने घर से
आँगन में ला ढेर किया
फिर लाद लिया मुर्दा तन को
और रामनाम का जाप किया
जो आग मिली अपनी ना थी
जो मौत मिली अपनी ना थी
अपना-सा कुछ मिला नहीं
सालों पहले बुझना चाहा
तू अग्निकुंड में जला नहीं


चेहरों पर ढके हुए चेहरे

धरती की सात परतों-सी
छुपी हुई-सी पहचान
सब मालूम, सब अनजान
ढोते हैं समंदर का बोझ
हल्की हैं असलियत की लहरें
चेहरों पर ढके हुए चेहरे

झूठा-सा घर है एक
जहाँ बटोर लिया है ढेर सारा झूठ
ख़रीदते और बेचते हैं झूठ
लगा लिया है झूठ का ताँता हर ओर
और देते हैं बेचैन पहरे
चेहरों पर ढके हुए चेहरे


सिंग्युलैरिटी 

मैं ये सोचता था
क्योंकि आदमी कहीं-न-कहीं सोचता ज़रूर है
‘क्या सच नहीं?’
‘नहीं, मानव हम वैचारिक जीव हैं
जो सोचेंगे नहीं तो रहेंगे नहीं’
किसी यूरोपियन फिलॉसफ़र ने कहा था
और उस पर वहाँ की रेशनल सभ्यता बन गई
सैकड़ों सालों तक फिर औपनिवेशवाद की बंदूक़ें
हम जानवरों पर तन गईं

तभी तो मैं सोचता था
हाँ तो ये सोचता था
कि उम्रदराज़ होते-होते
हमारे दर्द और तकलीफ़ें मर जाती होंगी
सोच के सुकून मिलता था तो सोच लेता था
पर बचपन, जवानी, अधेड़पन
और मौत की लंबी जद्दोजहद के बावजूद
ऐसा कुछ होता दिखता नहीं
मगर महसूस होता है

ऐसा महसूस होता है
कि सारी जलन, नफ़रत, बुझे हुए दीयों के तेल
कभी शून्य में लुप्त नहीं होते
बल्कि सीने के एक कोने में दफ़न रहते हैं
जैसे-जैसे समय की गाड़ी चलती है और कीचड़ उछालती है
वो कोना सब कुछ सोख लेता है
आदमी ज़हरीला नहीं होता
उसके एक मामूली कोने में ज़हर होता है
और वो एक दिन फट जाता है
जैसे 13 बिलियन साल पहले सिंगुलैरिटी फटी थी
उस दिन के बाद
लम्हे, लोग, ज़िंदगियाँ और मौतें आती-जाती हैं
पर कुछ थमता-ठहरता नहीं
महसूस नहीं होता

ये फ़साना यूँ तो लंबा चला जाएगा
मगर अब और हमसे सहा नहीं जाएगा
दुनिया की लाल ईंट है फ़रेब
सिवाय झूठ के कुछ और गढ़ा नहीं जाएगा
खुले मुँह से उतरेगा ज़हर सीने में
यहाँ साँस भी अब क्या ही लिया जाएगा
है इक नींद जो बरसों से जुदा है मुझसे
अब से मदहोशी को ही होश कहा जाएगा
ऐ दोस्त! अगर तंग हो, बदहाल हो तुम
तो फिर मान भी लो कि जिया नहीं जाएगा
कहीं जो क़ैद है दुनिया का सबब
तो रहे क़ैद मुझसे खोजा नहीं जाएगा
अपना वजूद तो धूल ही हो जाना है
फिर धूल का जो होता है वो हो जाएगा
इसी इक बात को सीने से लिपट चैन करो
कि कोई दिन हमें लाद-उठा बार दिया जाएगा
इस कूचे पर अगर अब कोई आता ही नहीं
ना उठो यार रुको अब ख़ुदा आता होगा
यूँ तो हम मान कर के खेल बड़े हैं हमसे
कि जो होना हो वैसा हो क्या ही जाएगा
कि इक वक़्त को आराम अगर आएगा


ज़िंदगी जा
समंदर में डूब
नदियों में नहा
बारिशों में भीग
ख़ुद में एक नया नमक घोल दे
इससे पहले कि देर हो जाऊँ
राख का ढेर हो जाऊँ
कुछ तो बोल दे


हर एक चीज़ जो तुम देखती हो
नई नज़र, नई आस से देखो
ज़माने के रंग-ढंग रस्म-ओ-रिवाज़ों से
अगर थक गई हो
तो मेरे क़रीब आओ
मुझे ज़रा पास से देखो


प्रिय बड़ी निपुण हो तुम
मुस्कराने की
दिल लगाने की
भूल नहीं करती
किनारों से कतराकर
लहरों से
पाँव भिगोने की
भूल नहीं करती
सुर्ख़ हवा-सी
कहीं दूर बहती रहती हो
पास आने की
आग लगाने की
कभी भूल नहीं करती


तू सोचता होगा कैसा इंसान है ये
हर एक पल ग़ुरूर में रहता है!
रहता है
चौबीसों घंटे, आठों पहर
तेरे सुरूर में रहता है
दिल-ओ-जाँ गर्दिश में रहते हैं
आपके ज़िक्र जब सजदों में होते हैं
होते हैं
अरमान आसमान भरने के
बावजूद
ये बंदा ज़मीन पर रहता है
कभी सोचता है जाकर कहे
कभी रास्तों से लौट आता है
आता है
होश फिर हदों में रहने का
दिल कहाँ आजकल अपनी हदों में रहता है


आज तेरे शहर में क़दम पड़ा
दबी हुई आग में फिर ख़लल पड़ा
सूखी हुई दरारों में बँटी ज़मीन पर
एक कयास का बादल उमड़ पड़ा
मैं आहिस्ता क़दम बढ़ा चल रहा था
भागता हुए मुझमें से एक आदमी निकल पड़ा


आँखों में चमक
साँसों में ख़लल
धड़कनों में फ़ुरकत
अगर आती है तो आने दीजिए
मुझ पर बेवक़्त नज़र
अगर जाती है तो जाने दीजिए
गिरा दीजिए वो दीवार
जो बचपन से बनाई थी
अपने भीतर की मासूमियत
महफ़ूज़ करने को
एक ठंडी बहार की सिहरन
ये बरसात
अगर लाती है तो लाने दीजिए
बढ़ते हैं जो क़दम मेरी ओर
तो बेशक बढ़ने दें उन्हें
उठती हैं लहरें
तो ऊपर उठने दें उन्हें
डूब जाते हैं अगर हम
डूब जाने दीजिए


उस देश भटकने दो मुझको
जिस देश क़दम था कभी पड़ा
जिसकी धरती का अंकुर खा
जिसकी नदियों का पानी पी
मेरा अंतर था बड़ा हुआ
जो देश अभी भी आँखों में
कानों में शोर-शराबों में
एक दर्द सुनाया करता है
उस देश भटकने दो मुझको
वो देश जहाँ इस जीवन का
सच कई बार आगे आया
कभी दूर खड़े आलिंगन कर
कभी पास पहुँचकर ठुकराया
वो देश जहाँ बचपन मेरा
यौवन की चट्टान चढ़ा
फिर उसके उपरांत स्वयं मैं
पत्थर की चट्टान बना
अब थोड़ा-थोड़ा टूट-टूट
ख़ुद को बिखराया करता हूँ
उस देश भटकने दो मुझको
वो देश जहाँ उस ममता ने
मेरा जीवन साकार किया
अपनी छाती का रक्त पिला
मेरा समूल विस्तार किया
उस देवी के चरणों में नत
कुछ मोल चुकाने दो मुझको
उस देश भटकने दो मुझको


मेरी आँखों में बसते हैं टूटे-फूटे लोग
बोझ ढोते मार खाते
कसमसाकर छटपटाते
नदी धँसते आदमी-सा
देह ही से लिपट जाते
टुकटुकी-से बेशरम ही
आपको क्या-क्या बताते!
‘कुछ खाने को दे दो भइया
मालिक कुछ तो दे दो’
जीवन जान अकारथ उनका
आप करुण हो लेते
ऐसे-ऐसे जग में देखे कैसे-कैसे लोग
मेरी आँखों में बसते हैं टूटे-फूटे लोग
हाय ग़रीबी! हाय बीमारी!
अब विवेचना होगी
कुछ बौद्धिक उठकर आएगा
गर संवेदना होगी
कोई रामबाण है संभव जो कि
इस दुविधा को हर ले
या है संजीवन उगा कहीं
जो भूख अमर से भर दे
सोच-सोच विश्लेषण कर
हम चार गालियाँ देंगे
कार्ल मार्क्स से राम-नाम
सबका पर्स्पेक्टिव देंगे
फिर हार मान या व्यर्थ जान
अपने रस्ते हो लेंगे
जैसे जीवन मुमकिन समझे
जीते जाएँ लोग
मेरी आँखों में बसते हैं टूटे-फूटे लोग
उन लोगों की आँखों में भी
कुछ तो बसता होगा
कुछ मानक होंगे उनके भी
जिसमें जँचता होगा
मेरी इस दुनिया के संशय,
डर और भीषण चिंता
उस दुनिया का भिखमंगा भी
बैठे-बैठे गिनता
घोर दिखावट दिख जाती है
पहली तह के नीचे
भूखे बच्चे पढ़ लेते हैं
आँखें मीचे-मीचे
उनकी आँखों में बसते हैं दुहरे-तिहरे लोग
मेरी आँखों में बसते हैं टूटे-फूटे लोग


मैं उथला-उथला चलता हूँ
उन्मादित और आभा से चूर
नैतिकता के मानों से दूर
व्यसनों, भोगों में घुला हुआ
कर्तव्यपथ से मुड़ा हुआ
अस्तित्वहीन, आडंबरयुक्त
पंखहीन, पंछी-सा मुक्त
इस विश्व-वृक्ष की छाया में
बहते प्रवाह की माया में
कोई चोट प्रलय-सी खाता हूँ
भीतर-बाहर धुल जाता हूँ
जीवन जीने का दृष्टिकोण फिर
इस आत्मबोध में पाता हूँ
मैं गहरा-गहरा चलता हूँ


अगर सपनो को मरने से बचना है 
अगर सपनो को मासूमियत को सच को इस दुनिया में मरने से बचना है 
तो उसे कई परतों के नीचे गाड़कर छुपा देना होगा 
लोगों के दिलों में 
ज़ेहनों में 
मोहब्बत में ख़ुशियों में 
एक दुसरे के अंदर चल रहे झंझावातों में उसे गाड़ देना होगा 
क्यूँकि दुनिया के बाज़ार में,अगर चीजें गाड़ी नहीं गयीं तो निश्चित  ही खोज ली जाएँगी 
और बेच दी जाएँगी 
कहीं ना कहीं उन दिलों में 
उन हदों तक सच को गाड़ देना होगा 
और धरती के भीतर चल रहे निरंतर द्वन्द और मंथन के मध्य 
सच और ज़्यादा निखरकर और तपकर पिघलकर छुपा रहेगा  किसी कोने में 
जिससे कल को जब हम बौराए हुए,मंडराए हुए,उलझे हुए कसमसाए हुए 
इधर उधर मारे मारे फिरें सच की तलाश में 
तो हमें पता हो की इस दुनिया में कहीं ना कहीं एक ऐसी जगह है जहां सच धँसा हुआ है 
और लोगों के दिलों और ज़ेहनों की 
उन परतों को खोले  और टटोलें 
जहां हमने उसे बोया था 
जहां हमने बचपन में खेला था 
पहला प्यार किया था 
सच 
जब हमने सफलता हासिल की बिना किसी को हराए 
जहां हमारे  अंदर दिखावट,खूनी-प्रतिस्पर्धा और बाज़ारीकरण के घर नहीं थे 
दिलों में जहां सच की सुबह दोपहर और साँझ होती थी 
जहां सच शाम की गोधूली में खेला करता था 
इसीलिए सच को संजोना पड़ेगा,
मन के घरों में।

अक्ल मेरी, तुमसे मात खाती क्यूँ है
तेरी नज़र इस वाक़ये पे
अमूमन मुस्कुराती क्यूँ है

रियाज़ करता हूँ
सैकड़ों बार कहने की
आखें कह देती हैं वो सब कुछ
ज़ुबान फिर अक्सर लड़खड़ाती क्यूँ है

——————————————

वजूद

वजूद कुछ और सा है
आदमी कुछ और सा हूँ

समेट लेता हूँ इक बूँद सा खुद को
सागर यूँ तो अपार सा हूँ

चुभता रहता नहीं किसी सीने से
तीर ऐसा हूँ, आर पार सा हूँ

बदहवास बीतती है ज़िंदगी जिनकी
मुजरिम वैसा, गुनहगार सा हूँ

झूठ फ़रेब की इस जाली दुनियाँ में
असलियत के औज़ार सा हूँ

कश्मकश ऐसी के नामालूम हूँ
के पतवार सा, या मँझधार सा हूँ।

———————————————

जीना

जीना एक मजबूरी सी है
मेरे दिल और मुझमें एक दूरी सी है
यूँ तो गुम सा है एक समुंदर मुझमें
क़ैद मुझमें एक बेक़सी सी है

मैं चलता जाता हूँ अंधेरों के साथ
दफ़न मुझमें रौशनी सी है
दुनिया से बेगानगी है
परछाइयाँ अपनी भी अजनबी सी है।

———————————————

हममें बचा नहीं

हममें बचा नहीं कुछ हमारा सा,
सागर ढूँढता फिरता है गुम एक किनारा सा
बेधड़क अलबत्त वो मासूम सा बचपन
कहते हैं भटकता सा है वो आज मारा-मारा सा

ठीक वही मंजर है आज इतने सालों बाद
और मुझे दिखता है कोई और नजारा सा
वक्त मुझसे कुछ कहता है और मैं सुन नहीं पाता
गूंजता रहता है मुझमें शोर-शराबा सा

———————————————

देखो तो

क्या हो गया इंसान
कहाँ खो गया जहान
देखो तो

एक बचपन था, एक जवानी थी
सीधी साधी अपनी कहानी थी
अब जीना हो गया है कठिन
और आदमी हो गया है मशीन
देखो तो

लोगों ने गढ़ लिए कितने धरम
परोसते रहते हैं सच के नाम पर अपने-अपने भरम
मुझे नहीं पता ये जानवरपना आया कहाँ से
ये नया पैमाना ये जग लाया कहाँ से
ज़माना हो गया है हैरान
और साला मुझे भी करता है परेशान
देखो तो

हम रहें बस वहीं

यूं पता नहीं कहां हुआ
वो हादसा जो उम्र के
दरमियान
कभी हुआ
यकीन है मगर मुझे
कि ठीक बाद हाथ से
लकीर टूट सी गई
उम्र छूट सी गई

उम्र बांध कर अगर
संग थामकर अगर
जिरह ठानकर अगर
चल भी दे
गुज़र भी लें
तो बोझ इस उदास मन
से कहां तक उठा सकें
क्या कदम बढ़ा सकें

समय एक धुरी पे
बँधा हुआ गुलाम है
गोल गोल घूमने
का ही एक काम है
तो पांव घूम घूम  कर
धारा नाप नापकर
लौट आएं फिर वहीं
हम रहें बस वहीं।


ग़लतियाँ

हमसे गलती हुई,
आपसे भी हुई होंगी,
जिंदगी की दिन--दिन अंगड़ाइयों में
कभी कभार
कुछ गलतियां हो जाती हैं.
गलतियां क़ानून की किताबों में अपराध हो जाती हैं,
और धर्मग्रंथों में पाप,
लेकिन इस दुनिया में, कहीं ना कहीं,
खुलकर जीना भी एक गलती मानी जाती है.
जैसे गलती है खुद में रहना,
भीड़ों से कटना,
कम खरीदना,
प्यार करना,
सच कहना,
और अपने आप को स्वीकार करना.
अपने सांचे को,
अपने ढाँचे को,
खोलते-पिरोते रहना 
मन के झंझावतों को
एक भारी गलती मानी जाती है.
गलती होती है कहीं ठहर जाना,
थम जाना,
किसी चीज़ को गौर से देखना,
या अंत तक सोचना,
क्योंकि हर वो गतिविधि जो विश्व की प्रतिस्पर्धी मशीन का हमें उपयोगी यंत्र नहीं बनाती,
एक गलती है।
क्यूंकि शायद गलतियों से बचना,
ज़िंदगी की अनवरत अनिश्चित्तताओं  से बचना हो,
एक पहरा मारना हो,
या संतरी गाड़ना हो,
जिसकी दीवारों के सायें में,
हम अपनी छोटी सी दुनिया पाल सकें।
जहां हम गलतियों से नहीं डरते,
क्यूंकि,
"आदमी या तो डर सकता है,
या जी सकता है,
डर के जीने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।"


फिर भी कभी कभी,
रेंगती रातों की गहरी काली रौशनी में,
हम उन दीवारों और संतरियों को घूरते हैं,
मुट्ठियां भींचकर।

कभी नंगे हाथों में
मिट्टी की एक परत लगाकर
शीतल जल से धोकर
मांजकर
झटककर 
उस हाथ से अपने चेहरे को छूकर
खुद के होने के ठंडेपन
अपनेपन का एहसास पाकर
कभी कभी सोचता हूँ
वो झील वो नदी
वो बरसात की बूंद
आखिर कहां होगी
जिसे मेरे भीतर का बहुत कुछ
गया गुज़रा जिया मरा एक सिरे से
मांज देना है।

 व्यथित नारी

व्यथित नारी,
जिस चक्रवात में,जिस अंधकार में
तन्तुओं में जकड़ी,इस मायावी संसार में
शोर में,बाज़ार में
बचपन की बुनियाद में
जहां कहीं भी सिमटकर बैठी हो तुम
क्या वहाँ तक मेरी आवाज़ आती है ?

इस दुनिया में
हृदय का हृदय होता है
मन का मन 
और रूह की रूह
पहली भेंट में सच मिलता नहीं
जो नहीं बिकता वो दिखता नहीं
इस दलदल में सच टटोलना हो तो
हौसले बांधकर घर से निकलना पड़ता है
कमर भर कीचड़ में धँसना पड़ता है


यहाँ उजियाले अंधेरे भी हैं
और अंधेरे आलोक
चीखती शांति भी है
और गुमनाम शोर 
रंगों में रंग बसते हैं
और लोगों में लोग
आओ चलो इस दुनिया से जूझते हैं
डूबकर उस पार उतरते हैं

मैं समझ नहीं पाया ये अब तक

मैं समझ नहीं पाया ये अब तक
रात कटती नहीं आखिर
क्यों सुबह तक
क्या क़ैद हूँ मैं
दिल की दीवारों में
या जिंदगी देती नहीं दस्तक
हमारा साथ क्या इतना ही था
या अभी घसीटा जाऊँगा मैं
सितम तक।

हम मुखौटे हैं

हम ज़मीन पे सोए हैं
हम पानी पे लोटे हैं
हम आदमी नहीं
हम मुखौटे हैं

हम बस्तियों में भटके हैं
हम बनों में ठहरे हैं
हम रुकते नहीं कहीं पर
हमने सब रंग देखे हैं

हम द्वंद्व में मथते हैं
व्यथा को चुनते हैं
ख़ुद ही ख़ुद की डोर से बंधकर 
चारों ओर थिरकते हैं
चढ़ते हैं जहाँ से
कहीं और से उतरते हैं
हम गोल गोल ही चलते हैं

हम डर से डरते हैं
तमन्ना में उलझते हैं
हम एक बड़ी ऊँची दीवार बना कर
अंदर हाथ बांध
मारें मारे फिरते हैं

दिलों की दिल से तबाही

इस जहाँ के निशान के पार,
इंकलाबी ज़ुबान के पार,
दहशतों की निगाह के पार,
सरसराती हवा के पार,
उबलते बुलबुलों के बीच,
बरसती बारिशों के बीच।
उमड़ती चाँदनी के बीच।
वस्ल की सरहदों के बीच।
ज़िन्दगी के गुमान के पार।
इश्क़ के इम्तहान के पार।

खीच लायी बाँध लायी।
दिलों की दिल से तबाही।

उल्फ़त

यही एक तकल्लुफ़ है कि
उल्फ़त नहीं है
उनकी बाहों में राहत तो है
मोहब्बत नहीं है।

अबूझमाड़

लौटते लौटते रास्ते पे पड़ा हुआ
पत्थर उठा लिया  मैंने
और एक हाथ से
उछाल-लोक के खेल में चलता चला गया
दूसरे हाथ में थामे
अपनी राइफल।
बूझता हुआ अबूझ माड़
रहस्य गाढ़
उलझता सुलझता स्वपारिक्रम में
अनायास ही क्या मन आया
और उछाल दिया मैंने पत्थर
आसमान की दिशा में
पत्थर तब से अभी तक नीचे गिरा नहीं है
और मैं एक हाथ में राइफल लटकाए
दूसरा हवा में टिकाए
इसी उम्मीद में बढ़ा चला जा रहा हूँ
कि बहुत सारी गत-विगत चीजों की तरह
वह पत्थर भी
आखिरकार मेरे पास
लौट आएगा एक दिन।

प्रेमी-पिता 

कई दफे बस यूं ही चलते चलते
मन में एक गुबार उठता है,
और उसके असंख्य चक्रवातों
के घेरे में मेरा स्थिर-अस्थिर मन
ना जाने कितने फेरों में हिचकोले खाता हुआ
आखिरकार मुझे उस विच्छेद पर लाकर खड़ा कर देता है
जहां से तुम्हारी मेरी दुनिया अलग होती है।

ये खयाल मुझे तब नहीं आते
जब मैं हंस रहा होता हूं दोस्तों के साथ
या कर रहा होता हूं कोई गंभीर बात
बातिया रहा होता हूं घर पर
बाल-बच्चों बूढ़े-बुजुर्गों के बारे में
बदलती ऋतुओं के बारे में
ढकनी पड़ जाती हैं सारी जरूरी चीजें
गैरजरूरी चीजों के साये में।

उन पलों में मुझे वो खयाल
दूर दूर तक नहीं आता।
वो आता है उस गोली के माफिक
जो गनपाउडर-हवा-पत्तों-झाड़ियों और बारिश की बूंदें चीरकर
अचानक ही आ जाती है
और सीने में धंस जाती है।
यूं की शायद वो व्यक्ति
जो पहाड़ के उस टीले से, झुर्मुट की आड़ से,
मुझे साधे बैठा है,
अपनी स्नाइपर राइफल के निशाने पर,
मैं ही हूं।

चाहे मैं कितना भी भाग लू
खुद से दूर
खुद साथ-साथ ही भाग रहा होता है
अपने अदृश्य लोक में
राइफल टिकाए हुए।
इसलिए मैं एक पेड़ की ओट में
खुलकर बैठ जाता हूं।
अब मेरा शत्रु अपनी गोलियां
निशाने पर दाग सकता है
और मैं मर सकता हूं
उन गोलियों से,
पूरा।

खयाल तुम्हारा है,
तुम्हारी हंसी का,
उस बेबसी का,
जिसे मैं लाखों टनों 
बारूद के साथ उड़ा देना चाहता हूं
उस दुनिया के साथ,
जो उस बेबसी को पैदा करती है।

बेबसी किस बात की
कि इस दुनिया में हमारा
संगम नहीं हुआ
या इसकी कि
इस स्वार्थी वाहियात दुनिया में
कभी भी
किसी चीज़ का
कोई संगम नहीं हो सकता।

फिर भी तुम्हारी हंसी
को निरंतर सुरक्षा देता रहता हूं मैं
अपने मन में
अपने मन में टिकाई हैं मैंने एलएमजीज़
उन सभी चारदीवारीयों पर
जिनके आगन  में,
तुम हंसती-झूमती-गाती चलती रहती हो,
मेरे मन में।

कभी एक क्रांतिकारी विचार
देता है मुझे सघन हौसला,
चलते चले जाने का,
जीवन क्षितिज पर,
जहां तुम्हारी स्मृतियों का बोझ,
तुम्हारी जिम्मेदारियों की ताकत बन जाए,
मेरे मन में,
स्थिर हो जाए यह विचार कि,
एक लड़की को सिर्फ प्रेमी की तरह नहीं,
पिता की तरह भी चाहा जा सकता है!!!

मृत्यु के बाद

मृत्यु के बाद
पहली जगह
जहाँ मैं पहुँचा
वो था
पहाड़ी पर का खंडहर
जहाँ बसंत की एक ढलती दुपहरी
हम दोनों ने साथ बिताई थी

लेटे थे
हरी नरम घास पर
और बुने थे बुन-सकने वाले-सपने
और सोए थे सो-सकने वाली नींद
और ढलती शाम के साथ
निहारा था सारा शहर
जैसे जुगनुओं की बस्ती।
पहली बार देखा था शहर मैंने
और उसकी असंख्य दुर्भावनाओं को स्वीकार किया था
और स्वीकार किया था
कि जीवित हूँ मैं
अभी भी।

इस क्षण
रात गहरी हो चली है
एक ठंडी हवा सरसराती सी बह चली है
नहीं है कुछ पास
तुम्हारी आहट
तुम्हारा आभास
मेरी ज़िंदा गर्दन पर बहती
तुम्हारी ज़िंदा सांस
तुम होगी कहीं पर
किसी शहर किसी जुगनुओं की बस्ती
सोई होगी, सो-सकने वाली नींद
बुने होंगे, बुन-सकने वाले सपने।

जबकी पहली दफा मैं
इस टीले से
एक प्रेत की आँखों से
ये पूरा शहर देख रहा हूँ।

कुएं की मुंडेर

कभी कभी
अपनी आवाज़ निकालना
ऐसा प्रतीत होता है
जैसे उसका
काले गहरे कुएं में
बाल्टी फेंक
पानी का निकलना
और अपनी गुम आवाज़
शायद उसके
उस कुएं में डूबकर
मर जाने को दर्शाती होगी.                                                                                                                                             शायद


कभी कभी जब 
देर रात तक नींद नहीं आती
और रात की गहराई
चीरती सी जान पड़ती है
मैं घर के पीछे
आहट लेते लेते
इस खंडहर हो चुके

कुएं की मुंडेर पर
खड़ा होता हूँ
और इसके अटल अंधेरे
का ठहराव पाने की
नाकाम कोशिश करता हूँ
जैसे अंतरमन झांक रहा हूँ।


उन क्षणों में
अपने सीने में दफन
कुछ बातों को
बाहर निकालना
मुझे याद दिलाता है
उसका इस कुएं में
बाल्टी फेंक
पानी निकालना।


और अब मेरी आवाज़
बुझ गई है।
सालों पहले इस कुएं में डूबकर
वो मर गई है!!!

बिस्तर पर
किसी रोज तुम मिलती हो
फिर नहीं मिलती।
एक एकाकी सा सूनापन मिलता है
फिर नहीं मिलता।

किसी रोज मिलती है
शांति, स्वीकृति और आराम
फिर नहीं मिलती।

मिलती है कभी
खोई हुई सी एक चीज़
और उसका एक छोर थामकर
धँसता हूँ मैं
गहन रसातलों में
अटल का आकार और संसार
लेकिन नहीं मिलता।

कभी उमड़ उठते हैं नैनों में बादल
और जमी रह जाती हैं झीलें
डमर जाती है
मुंह तक भर आती है
बहने का आधार लेकिन नहीं मिलता।

कभी कभी मिलता है ईश्वर भी
रास्तों में पड़े हुए पत्थर की तरह
पर मैंने जैसे सोचा था
वैसे नहीं मिलता।

कितने ही खोए हुए चेहरे
और बीते हुए पल
मिलते से लगते हैं
पर बैठ कर सोचूं
और आखिरकार पा लूं
का हौंसला नहीं मिलता।

अब किसी भी चीज़ को थाम लेने का
जज़्बा अगर मिलता भी है तो
वक्त नहीं मिलता।

बढ़ चला मैं
उठाया हुआ माथा अपना
दहकते सूरज की ओर
और एक द्रवीत करती सी
आत्मस्वीकृति से संतुष्ट मैं
चल दिया

मुट्ठी में बांधी धूल
उस रेगिस्तान का
जहां पर तुम्हें जलाया था
जहां अपने घुटनों पर बैठ
कतरा-कतरा  रोया था
जहां आए थे भगवान
और कंधा सहलाया था

वहां से फिर जोगी-जोगी 
खंडहर खेत खलिहान
पहाड़ मैदान क्यारियां
चलता चला गया
असंख्य असंख्य लोग देखे मैंने
और उनके दुख से दुखी भी हुआ
हाथ जोड़ बैठा अपने बिस्तरे पर
और मांग डाली हर वो याचना
जिससे दुनिया बस हंसी खुशी बीतती चली जाए
अपने लिए तो मांगा ही नहीं
और फिर नहीं सोचा

कितना जरूरी होता है
आदमी का सैकड़ों सैकड़ों बार
आदमी होते रहना
अपना ह्रदय कितने कितने टुकड़ों में बांटना
और किसी एक टुकड़े को अपने ही भीतर तलाशना
देखना दुनिया की जद्दोजहद
और बस बिना आंसुओं के रो देना।

कितना सुंदर होता है
प्रेम करना और कभी न पाना
और अपने भीतर बहते रग रग में एक खोनेपन के अनुभव को पाते रहना
कितना क्रूर है
अनवरत पपरिक्रमाओं में भागते भागते कभी कभी
तुम्हारी यादों के खंडहर में आते रहना।

गिद्ध 

क्या भयावह चीज़ ये
कैसा विकराल
कितना भारी
मेरे कंधों में धँसे इसके पंजे
कुरेदते
और गहरे होते जाते
परछाई सघन
ओढ़ती-समेटती मेरी अल्प आकार।

ऐसा विशाल पक्षी ये
और उससे भी विशाल इसके पंख
इसके गगन्नुमा पंख।
इन सबको ढोकर चलते-चलते
कंधे दूभर हो रहे हैं
तन-मन पिस रहा है।

टूट रहा हैं चरमराकर मेरा मेरुदंड
दुख अखंड
एक गिद्ध बनकर यूँ बैठ गया है
और अपने इन मृत्युकारी पंखों के थपेड़ों से
झटक देता है, फेंक देता है दूर-दूर तक
वो सारी सौम्यता और प्रेम
जिसे अंततः मुझ तक चले आना चाहिए था।


खेल जीवन के

शहर में क्योंकर पाओगे आराम
भटककर थक जाओगे
व्यथित हो उठोगे
जीव हो तुम
वन के।

अंततः कहां फटेगा बाँध 
कहां आएगी बाढ़
कहां फफककर फूट पड़ेंगे
बोल ये
मन के।

देखो तो सपने से लगते हैं
फूल उपवन के
हर बार किनारे ही फेंका जाता रहा हूं मैं
बीच मंथन के।

जो मधुवन के चार फूल भा भी गए
बन गए शूल फिर
अंतरमन के।

किन जटिलताओं में बिखर गया मन
कितने मायावी रहे
क्रूर रहे
खेल जीवन के।


हंस 

एक दिन तुम्हारे मृत शरीर, मृत ह्रदय से एक हंस निकलेगा और उड़ जाएगा।
एक दिन मेरी भी मृत देह और ह्रदय से एक हंस निकलेगा और उड़ जाएगा।
हमारी मायावी सांसारी हस्तियों से
सिर्फ और सिर्फ दो पंछी निकलेंगे और उड़ जाएंगे।
सभी बंधनों, दुखों, पीड़ाओं और हताशाओं के सागर के कहीं युगों ऊपर,
अंत से अनंत की ओर,
संग-संग,
उड़ जाएंगे।

चेहरा तुम्हारा शाम है
याद सुबह हो आता है
और रात बीतते-बीतते बूढ़ा होता चला जाता है।
मेरी उम्र की तरह
समय की तरह।

चेहरा तुम्हारा रौशनी है
जो मुझे भी रौशन करती है
और इस बयाबान में
कुछ क्षणों का निर्वाण
जाने कहाँ से भरती है।

चेहरा तुम्हारा उदासी है,
जो मुझे काले घिरते सावन की हल्की सिरहाती हवाओं की तरह
उस एकाकीपन के अतल तक ले जाता है
जो शायद नियति है।
आँसू तुम्हारे मोती हैं
जो मैं उस अतल से उठाकर
अपने हाथ में बँधे धागे से पिरो लेता हूँ।

चेहरा तुम्हारा मैं हूँ
वो दैत्य है
जो तुम्हारी आँखों से मुझे दिखता है।
जो रातभर हमारी नींद को
छुपकर कोने से देखता है,
वो जो कभी नहीं सोता है।

चेहरा तुम्हारा मजबूरी है
मेरी मजबूरी है
हम सबकी मजबूरी है
जो हर जीते-जागते आदमी की पतंग काट देती है।
जो एक भीषण विध्वंस रह-रह के उमड़ने के लिए
हमारे हिस्सों में बाँट देती है।

चेहरा तुम्हारा पायल है
जो तुम्हारे बाद भी खनकता रहेगा।
मेरे मन के किसी कोने में
बजता रहेगा,
मेरी काली घनी रातों में
थिरकता रहेगा।

एक यात्रा 

पुलिया तभी टूटी
जब बहाव सबसे तेज़ था
और मेरे पास समय नहीं था।
जाना था
कुछ भी करके
उस पार पहुँचना था।

उफनती नदी का लय
मेरे ह्रदय के  झंझावातों में
बजता रहता है।
मैंने घड़ी देखी
तो कई साल बीत चुके थे
और मैं इस पर खड़ा ही रह गया।

तब तक छटती रही जवानी,
पुलिया होती गई पानी,
और अंततः
सब कल, आज, और कल के द्वंद्व
जल हो गए।
नदी हो गए।

जिसे कतरा-कतरा
सदियों तक पी लेने के बाद
मैंने अपनी बुझती हुई प्यास के साथ
यहाँ से जाने
और वहाँ पहुँच सकने के
द्वंद्व भी बुझा दिए।

क्या बाकी है जिसे कह लेने के बाद
छाती खाली हो जाएगी
मन हल्का हो उठेगा।
कई दिनों बाद शायद
अपनी आवाज़ मन को छुए।
आहिस्ता से, हौले-हौले ही सही
हमको हमारी याद आ जाए।
दो आँसू बह जाएँ,
तो हम भी अपना बक्शा, अपनी पेटी
और अपनी लाठी लेकर
वन की तरफ चले जायेंगे।

किन बोझों को कहाँ उतारकर हम
दो क्षणों के भ्रम में ही सही
अलमस्त,
बेसुध हो सकेंगे।
रोज़मर्रा के क्रूर को काटकर
अल्पकालिक
खुद हो सकेंगे।

किन वनों के,
किन सघन वृक्षों की,
किन पत्तियों के, किन ओस की बूँदों के
कितने स्पर्शों के बाद
हमको वो आर्द्रता,
वो नम,
वो ठंडक मिलेगी
जिसमें डूबने के लिए हम अपना
रेगिस्तान से भरा दिल लाए हैं।

पाप क्या है, सोचेंगे।
झरते सावन में डूबते मानव के मन माफिक
हम भी भीगने का औचित्य खोजेंगे।
जल का तत्व खोजेंगे।
और अपने अपराधी मन को
माँज-माँजकर धो देंगे।

तन्हाई 


हमने कई दिनों तक तन्हाई को नामंज़ूर कर दिया।
पर्दे डाल दिए,
हमने इतना शोर पैदा कर दिया
जिसमें तन्हाई सो गई
गुमसुम ही।

कई दिनों तक हमने
निचोड़-निचोड़ तन्हाई पी,
ज़िंदगी जी।
और इसी उम्मीद में जीते चले गए
कि जीते चले जाएँगे।

हमने खुद का पाप छुआ,
तो उँगलियाँ ठंडी पड़ गईं,
लेकिन अंतर न छुआ।
ऐसे, सिर्फ
बाहर-बाहर ही खिड़की के
मँडराता रहा धुआँ।

तन्हाई बाँटने नहीं आई,
या दम घोटने।
अंततः सब कुछ से हारकर
हमने तन्हाई का खंजर
अपनी छाती में उतार लिया।
और फिर आख़िरी प्रतीक्षा रह गई,
जो बाकी ही है।

क्या होगा तुम्हारे बिना मेरी इन कविताओं का

क्या होगा तुम्हारे बिना मेरी इन कविताओं का,
कौन जलायेगा इन्हें 
और इनके अंतिम क्षणों में 
विषाद के आख़िरी और सबसे ज़रूरी आसूँ 
जिससे मेरे हृदय को शीत मिलेगी 
कौन बहायेगा?
कैसे खोजूँगा तुम्हें 
उन वीरान खंडहरों की अबूझ दीवारों में 
लटों जड़ों पत्तियों के बिखरे संसार में 
कैसे उकेरूँगा तुम्हारा निशान 
कैसे पाऊँगा प्राण 
इस बयाबान में 
आराम के दो क्षणों का निर्वाण
किसकी आहुति में 
मैं ये रक्तरंजित खेल खेलता जाऊँगा 
किसको करूँगा युद्ध के 
असंख्य अनुष्ठान अर्पण 
या हारकर,थककर,मरकर 
आख़िर किसका मुँह ताककर 
करूँगा 
आत्मसमर्पण  
किसकी याद आएगी 
जब मुस्कुराता हुआ एक छोटी सी बच्ची का चेहरा 
लौटती हुई अपनी बस से 
मुझे देखते हुए गुज़र जाएगा 
और दोनों हाथों में राइफल थामे हुए मैं 
हाथ भी नहीं लहरा पाऊँगा।

दीवार में एक खिड़की रहती है।(विनोद कुमार शुक्ल की  दीवार में एक खिड़की रहती थी  को समर्पित)

एक अलग दुनिया होगी
एक मकान होगा
जिसके दरवाज़े और खिड़कियाँ
हाथों के स्पर्श से नहीं
चेतना की छुअन से खुलते हैं।
उस खिड़की से उतरकर
हम शायद उतर पाएंगे वहाँ
जहाँ अनवरत साम्य है।
जहाँ नदियाँ, पर्वत, झरने और पहाड़ हैं।
समय क्रूर नहीं है,
काल नहीं है।
किसी पेड़ की ओट में टिककर
आप मृत्यु तक वहाँ बैठ सकते हैं।
किसी तालाब के किनारे पर
रोम-रोम तक नहा सकते हैं।
जहाँ सभ्यता और संस्कृति के परे हम
जी सकते हैं।
निरंतर जीवन की क्रूर परिक्रमा को
तोड़कर
कहीं हम अपने जीवन में रह सकते हैं।
शायद यही मानकर
भले यह पूरा सच हो,
एक परिकल्पना हो, आभास हो,
मान्यता हो
या भ्रांति हो।
किन्तु इस भ्रम के फेर में ही ज़िंदगी बहती है।
दीवार में एक खिड़की रहती है।


मैं थक चुका हूँ

मैं थक चुका हूँ
समय की क्रूर परिक्रमा से
सूर्योदय-सूर्यास्त से
अनवरत बढ़ने वाले काल से
एकांत के आकार से
कुछ आने और चले जाने से
चाँद निकलने और डूब जाने से
गति से
नियति से
मैं बहुत थक चुका हूँ।

थक चुका हूँ बहुत
बाल्टी के भर जाने से
धूप चले जाने से
कमरे से खींचकर
रोज़मर्रा के थपेड़ों में
फेंक दिए जाने से।
थक चुका हूँ बहुत
अपने भीतर कुछ मर जाने से।

घड़ी की दो सुईयाँ
मुझे समय की दो टूटी हुई
बैसाखियों माफ़िक जान पड़ती हैं।
समय का लंगड़ा कर चलना शायद इन्ही से हो।

ज़रूरी है कि ये दिन, महीने और साल
आँख मूँदते ही गुजर जाएँ।
और एक काली गहरी नींद से
जागने के बाद
उस छोर पर खड़े मिलें,
जैसे कि बस के सफ़र में आदमी
शुरुआत के क्षणों में ही सो जाता है।
ठीक वैसे ही,
समय के फेरे में मैं मरूँ नहीं,
बस कुछ देर सो जाऊँ।

या कि एक पाँव दहकते सूरज
और दूसरा,
ठंडे चाँद पर टिकाकर
अपने पूरे सामर्थ्य से
पृथ्वी को असंख्य फेरों में घुमा दूँ।
और समय को असमय ही बढ़ा दूँ।
क्योंकि, सूरज, चाँद और धरती
अपनी शाश्वत गतियों से भले ही न थके हों,
मैं थक चुका हूँ।



अगर ये बादल बहकर कहीं और चले गए
तो वे वहाँ बरसेंगे
हमारे दुख के बादल उड़कर कहीं और चले गए
तो हमारे दामन से हटकर कहीं और जा बरसेंगे
लेकिन बरसेंगे जरूर!


सभ्यता का बोझ 

यार हम बहुत थक गए हैं,
बहुत ही ज्यादा, सत्य ही
औद्योगिक क्रांति से
फैलते ये मृत्यु तंतु
और कितना ढोएँगे।
शहरों की चमचमाती शामें
और गड़गड़ातीं फ़ैक्ट्रियों की कभी
ना थमने वाली गति से बढ़े हम
कब तक खड़े रहेंगे।

ऊर्जा बहती रहेगी
लेकिन हम ढोते  रहेंगे क्या
इस बढ़ती वीभत्सता के मूकदर्शक ही...
होते रहेंगे क्या

देखो तो आदमी ने
हमें आदमी सा बनाया है
खोखला और मजबूर
और खड़ा कर दिया है
सभ्यता को उसके अंत तक पालने के लिए।

बिजली की जरूरत अब
जरूरत नहीं बल्कि उपभोग है।
एक गैरजरूरी जरूरत
जिसके भ्रम में क़ैद ये बदहवास लोग
साले रात रात भर नहीं सोते।
और हमारे कंधे दोहरे होते जा रहे हैं।

किसी दिन
इन कंधों से सारे तार उतारकर
चलते चलते हम समंदर के
अतल तक चले जाएंगे
और लेट जाएंगे।


काली शाल 

एक दिन निश्चय किया मैंने

और घर से अपनी काली शाल कंधों पर डाले

इस दृढ़ विश्वास से

गहरी होती रात के धूमिल

होते रास्तों पर कदम बढ़ा दिये की

अब जब तक मन में हर उथल पुथल चीज के बीच  सामंजस्य ना बैठा लूँ

वापस नहीं लौटूँगा।


कई लोग सीधे गोली मार लेते हैं।

या गोली मार देते हैं।

या अपने दुख का बोझ

मासूम कंधों पर डाल देते हैं



मैंने ज़िम्मेदारी उठायी

और मन में दाखिल करने शुरू किए

सारी गत विगत चीज़ों के 

अबूझ अनुभव

क्यूंकि कहीं ना कहीं एक लकीर खींचना

सबसे ज़रूरी 

और सबसे मुकम्मल काम है।


बचपन की कुछ बातें

अभी भी अंतर्मन को छेदतीं हैं

और इसीलिए शायद

ख़ुशियाँ इकट्ठी नहीं कर पाता मैं।

और ये बातें 

और इन पर ख़ुद को कुरेदते रहना

निरर्थक है



एहतियातन नरम हाथों से सिलनी पड़ेंगी

मन की चादरें 

नहीं तो दुनिया की रूखी सर्द में ठिठुरकर मर जाऊँगा।


अपना दुख 

छोटा नहीं हैं

ना ही बेकार है।

सम्भाल कर रखने वाली

संजोने वाली

दवा है

जिसे पीते ही दुनिया का दुख समझ में आता है।

आदमी अपनी हदों में आता है।


सबसे ख़तरनाक होता है वह आदमी

जिसके पास अपना दुख

और अपनी शाल नहीं होती।

जिनकी गर्माहट में वो ख़ुद को ढक सके।

दुख की शाल दूर रखती  है

हिंसा के कफ़न को।

काट देती  है बीच में ही

जानवर बनने के क्रम को।






1 comment:

  1. शानदार,जबरदस्त, लाजबाव 👌👌

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